Sunday, December 13, 2015

कैलेंडर

आज सुबाह कैलेंडर पर नज़र पड़ी, तो महसूस हुआ।
कि मैं उसके वरख बदलना भूल गया था।
वक़्त मानो तो थम सा गया था उसके मायूस से चेहरे पे।
कि नवम्बर ऑने पर भी, वो सितम्बर में छूट गया था।

वरख बदलने लगा, तो दिल मे एक ख़याल आया।
कि क्यों न एक मासूम सी शरारत की जाए।
और लड़कपन के खेल की तरह, ज़रा सी रोमंची करके।
अक्टूबर का महीना; फिर से जिया जाए।

कुछ अधूरे ख़्वाब, एक अदद आरज़ू, थोड़ी सी क्षधतें।
और चंद अदजिए पल; क्यों न फिर से जिए जाए ।
और वक़्त की सिहाई से, इस ज़िंदगी की किताब पे ।
क्यों न कुछ नए ख़ूबसूरत नुखतें; जोड़ दिए जाए।