ऐक अरसे बाद यकायक ;
इस भीड़ में कहीं , वोह मगर ;
आज़ ख़ुद से मुलाक़ात हुई।
कुछ देर लगी पहचानने में;
गोया कि नयी पहचान लगी।।
पहले अकसर मिला करते थे;
ज़िंदगी की तंग गलियों में।
और घंटो बातें होती थी;
सस्ती चाय की चुस्कियों पें।।
गिरती बारिश की बूंदों मैं ;
मोती चुना करते थे।
और झाड़ों की नाज़ुक सुनहरी धूप के;
गहने भुना करते थे।।
रात को कोठे पे, मंझी में लेटे लेटे;
साथ साथ, चाँद तका करते थे।
और सर्द तारों की छाओं में;
ख़्वाब पिरोया करते थे।।
पर ज़िन्दगी की तंग गलियां तोड़ के ;
अब खुली सड़कें मैंने बनायीं हैं।
और रफ़्तार भरी इस ज़िन्दगी में ;
एक भीड़ उमड़ आई हैं।।
इस भीड़ में कहीं , वोह मगर ;
कुछ गुमशुदा सा हो गया।
और ख्वाब तो पूरे हुए अपने ;
पर शायद वह कहीं गिरवी रह गया।।
पर शायद वह कहीं गिरवी रह गया।।
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